मंगलवार, 25 मार्च 2008
19-20 मार्च को हैदाराबद में कुछ स्वैच्छिक संस्थानों के कार्यकर्ताओं की एक बैठक में शामिल होने का मौका मिला. ये वो कार्यकर्ता हैं जो आंध्रप्रदेश के दूर-दराज के गांवों और कसबों में जातिय भेदभाव से लड़ रहे हैं. लड़ ही नहीं रहे हैं, उन्होंने बहुत सफलता भी पायी है.
राधा प्रियदर्शिनी बहन का अनुभव वाकई हैरतंगेज़ है. आंध्रप्रेश और कर्नाटक के सीमा से लगे कुछ गांवों में प्रियदर्शिनी बहन पिछले 4-5 सालों से देवदासी प्रथा के खात्मे के लिए काम कर रही हैं. तरह-तरह की परेशानियों का सामना करते हुए उन्होंने काफी हद तक सफलता भी हासिल की है. पर उनका मानना है कि अभी तो शुरू ही हुई है उनकी लड़ाई. कोई खा़स फंडिंग भी नहीं है, पिछले साल भर से दिल्ली स्थित संस्था दलित फाउंडेशन की ओर से उनकी संस्था सबला को थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद मिल रही है. पर उनका कहना है कि ये पैसे तो अब मिले हैं पर सबला का काम पुराना है. सबला देवदासी प्रथा को बनाए रखने वाले सड़े गले तबके से लगातार लड़ रही है. इस लड़ाई में उन समेत संस्था की और महिला साथियों पर कई बार हमले भी हो चुके हैं. पर उन्होंने भी तय कर लिया है चाहे जो हो जाए, लड़ाई बंद नहीं होगी. राधा बहन कहती है कि सबसे ज़्यादा उन्हें तब परेशानी आती है जब पर्याप्त कानूनी जानकारी के अभाव में दोषी छूट जाते हैं. जिस क्षेत्र में राधा बहन काम करती हैं वहां ग़रीब दलित बहनों को देवदासी बनना पड़ता है. यानी एक साथ दो तरह के अत्याचार, महिला उत्पीड़न और दलित उत्पीड़न. हालांकि भारतीय संविधान में दोनों ही तरह के अत्याचार को समाप्त कहा गया है और इसमें लिप्त किसी भी व्यक्ति को समुचित सज़ा का प्रावधान भी भारतीय न्यायप्रणाली में मौजूद है पर आज तक इन अपराधों के लिए सजा कम से कम ही हुई है. देवदासी प्रथा निरोधक कानून के तहत तो बहुत ही कम. राधा बहन ने बहुत ज़ोर देकर कहा, ‘आप आइए हमारे फील्ड में. हम आपको दिखाते हैं कैसे आज भी ये अमानवीय और घोर स्त्री विरोधी प्रथा कैसे कायम है.’ उन्होंने ये भी कहा कि उनके कार्यकर्ताओं के साथ एक लीगल ट्रेनिंग भी बड़ा फायदेमंद होगा.
संघर्ष और जीत के कुछ और किस्से बाद अगली पोस्टों में
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